Saturday, September 17, 2011

Aashtha

एक दिन साई बाबा अपनी ही कथा करते हुये बोले कि चार मित्र मिलकर धार्मिक व अन्य पुस्तकों का अध्ययन कर ब्रह्मा के मूलस्वरुप पर विचार करने लगे. एक ने कहा कि हमें अपना मार्ग स्वयं चुनना चाहिये.

 दूसरे पर निर्भर रहना उचित नही है. इस पर दूसरे ने कहा कि हमें अपने संकीर्ण विचारों व भावनाओं से मुक्त होना चाहिये, क्योकि इस संसार में हमारे अतिरिक्त और कुछ नही है.

तीसरे ने कहा कि यह संसार सदैव परिवर्तनशील है, केवल निराकार ही शाश्वत है. अतः हमें सत्य और असत्य का विचार करना चाहिये. तब

चौथे (स्वयं बाबा) ने कहा कि केवल पुस्तकीय ज्ञान से कोई लाभ नही. हमें तो कर्तव्य करते रहना चाहिये. दृढ़ विश्वास और पूर्ण निष्ठा पूर्वक हमें अपना तन, मन, धन और पंचप्राणादि सर्वव्यापक गुरुदेव को अर्पण कर देने चाहिये. गुरु भगवान है. सबका पालनहार है.

इस प्रकार तर्क-वितर्क के बाद हम चारों वन में ईश्वर की खोज के लिये निकले. मार्ग में हमें एक बंजारा मिला, जिसने हम लोगों से पूछा कि सज्जनों ! इतनी धूप में आप लोग कहा जा रहें हैं? प्रत्युत्तर में हम लोगों ने कहा कि वन की ओर ! उसने पुनः पूछा, कृप्या यह तो बताईये कि वन कि ओर जाने का उद्देश्य क्या है.? हम लोगों ने उसे टालमटोल वाला उत्तर दे दिया कि बिना पथ-प्रदर्शक के इस अपरिचित भयानक वन में भटकने का कोई लाभ नही है. यदि आप लोगों की तीव्र इच्छा ऐसी ही है तो कृप्या किसी योग्य पथ-प्रदर्शक को साथ ले लें. हम लोगों ने विचार किया कि हम स्वयं ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में समर्थ हैं, तब फ़िर हमें किसी सहारे की क्या आवश्यकता है.

अंत में हम मार्ग भूल गये और बहुत समय तक यहाँ-वहाँ भटकते रहे. भाग्यवश हम लोग उसी स्थान पर पुनः जा पहुँचे जहाँ से पहले प्रस्थान किया था. तब वही बंजारा हमें पुनः मिला और कहने लगा कि प्रत्येक कार्य में चाहे वह बड़ा हो या छोटा, मार्गदर्शक आवश्यक है. ईश्वर प्रेरणा के अभाव में सत्पुरुषों से भेंट होना सम्भव नही है. भूखे रहकर भी कोई कार्य पूर्ण नही हो सकता. इसलिये कोई आग्रहपूर्वक भोजन के लिये आमंत्रित करे तो उसे अस्वीकार न करो. भोजन तो भगवान का प्रसाद है. उसे ठुकराना उचित नही है. यदि कोई भोजन के लिये आग्रह करे तो उसे अपनी सफ़लता का प्रतीक मानों. इतना कहकर उसने भोजन करने का पुनः अनुरोध किया. फ़िर भी हम लोगों ने उसके अनुरोध की उपेक्षा कर भोजन करना अस्वीकार कर दिया.

उसके सरल और गूढ़ उपदेशों की ओर ध्यान दिये बिना ही मेरे तीन साथी आगे चल दिये. मैं भूख प्यास से व्याकुल था ही, बंजारे के अपूर्व प्रेम ने मुझे आकर्षित कर लिया. यद्यपि हम लोग अपने को अत्यंत विद्वान समझते थे, परन्तु दया एवं कृपा किसे कहते हैं उससे सर्वथा अनभिज्ञ ही थे. बंजारा था तो एक शूद्र, अनपढ़ और गँवार, परन्तु उसके हृदय में महान दया थी, जिसने बार-बार भोजन के लिये आग्रह किया. मैने सोचा कि इसका आग्रह स्वीकार कर लेना ज्ञान प्राप्ति के लिये शुभ आह्वान है और फ़िर मैंने इसी उसके दिये रुखे-सूखे भोजन को आदर व प्रेम पूर्वक स्वीकार कर लिया. भूख शांत होते ही मैं क्या देखता हूँ कि गुरुदेव तुरंत समक्ष प्रकट हो गये.

Tages:- शिरडी साई बाबा

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